Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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ताहिर-हुजूर, जब से इस अंधो ने शहर में आह-फरियाद शुरू की है, तब से अजीब मुसीबतों का सामना हो गया है। मुहल्लेवाले तो अब नहीं बोलते, लेकिन शहर के शोहदे-लुच्चे रोजाना आकर मुझे धमकियाँ देते हैं। कोई घर में आग लगाने को आमादा होता है, कोई लूटने को दौड़ता है, कोई मुझे कत्ल करने की धमकी देता है। आज सुबह कई सौ आदमी लाठियाँ लिए आ गए और गोदाम को घेर लिया। कुछ लोग सीमेंट और चूने के ढेरों को बखेरने लगे, कई आदमी पत्थर की सिलों को तोड़ने लगे। मैं तनहा क्या कर सकता था? यहाँ मजदूर खौफ के मारे जान लेकर भागे। कयामत का सामना था। मालूम होता था, अब आन-की-आन में महशर बरपा हो जाएगा। दरवाजा बंद किए बैठा अल्लाह-अल्लाह कर रहा था कि किसी तरह हंगामा फरो हो। बारे दुआ कबूल हुई। ऐन उसी वक्त अंधा न जाने किधर से आ निकला और बिजली की तरह कड़ककर बोला-'तुम लोग यह ऊधम मचाकर मुझे क्यों कलंक लगा रहे हो? आग लगाने से मेरे दिल की आग न बूझेगी, लहू बहाने से मेरा चित्ता शांत न होगा। आप लोगों की दुआ से यह आग और जलन मिटेगी। परमात्मा से कहिए, मेरा दु:ख मिटाए। भगवान् से विनती कीजिए, मेरा संकट हरे। जिन्होंने मुझ पर जुलुम किया है, उनके दिल में दया-धरम जागे, बस मैं आप लोगों से और कुछ नहीं चाहता।'

इतना सुनते ही कुछ लोग तो हट गए; मगर कितने ही आदमी बिगड़कर बोले-तुम देवता हो, तो बने रहो; हम देवता नहीं हैं, हम तो जैसे के साथ तैसा करेंगे। उन्हें भी तो गरीबों पर जुल्म करने का मजा मिल जाए।-यह कहकर वे लोग पत्थरों को उठा-उठाकर पटकने लगे। तब इस अंधो ने वह काम किया, जो औलिया ही कर सकते हैं। हुजूर, मुझे तो कामिल यकीन हो गया कि कोई फरिश्ता है। उसकी बातें अभी तक कानों में गूँज रही हैं। उसकी तसवीर अभी तक आँखों के सामने खिंची हुई है। उसने जमीन से एक बड़ा-सा पत्थर का टुकड़ा उठा लिया और उसे अपने माथे के सामने रखकर बोला-अगर तुम लोग अभी भी मेरी विनती न सुनोगे, तो इसी दम इस पत्थर से सिर टकराकर जान दे दूँगा। मुझे मर जाना मंजूर है; पर यह अंधोर नहीं देख सकता।
उसके मुँह से इन बातों का निकलना था कि चारों तरफ सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था, वह वहीं बुत बन गया। जरा देर में लोग आहिस्ता-आहिस्ता रुखसत होने लगे और कोई आधा घंटे में सारा मजमा गायब हो गया। सूरदास उठा और लाठी टेकता हुआ जिधर से आया था, उसी तरफ चला गया। हुजूर, मुझे तो पूरा यकीन है कि वह इंसान नहीं कोई फरिश्ता है। सोफी-उसे किसी से इन दुष्टों के आने की खबर मिल गई होगी। ताहिर-हुजूर, मेरा तो कयास है कि उसे इल्म गैब है। सोफी-(मुस्कराकर) आपने पापा को इत्तिला नहीं दी? ताहिर-हुजूर, तब से मौका ही नहीं मिला। खुद बाल-बच्चों को तनहा छोड़कर नहीं जा सकता। आदमी सब पहले ही भाग गए थे। इसी फिक्र में खड़ा था कि हुजूर की मोटर नजर आई। क्लार्क-यह अंधा जरूर कोई असाधारण पुरुष है।
सोफी-तुम उससे दो-चार बातें करके देखो। उसके आधयात्मिक और दार्शनिक विचार सुनकर चकित हो जाओगे। साधु भी है और दार्शनिक भी। कहीं हम उसके विचारों को व्यवहार में ला सकते, तो निश्चय सांसारिक जीवन सुखमय हो जाता। जाहिल है, बिल्कुल निरक्षर; लेकिन उसका एक-एक वाक्य विद्वानों के बड़े-बड़े ग्रंथों पर भारी है। मोटर चली, तो सोफी बोली-आप लोग ऐसे साधुजनों पर भी अन्याय करने से बाज नहीं आते, जो अपने शत्रुओं पर एक कंकड़ भी उठाकर नहीं फेंकता। प्रभु मसीह में भी तो यही गुण सर्वप्रधान था।
क्लार्क-प्रिये, अब लज्जित न करो। इसका प्रायश्चित्ता निश्चय होगा।
सोफी-राजा साहब इसका घोर विरोध करेंगे। क्लार्क-थुह! उनमें इतना नैतिक साहस नहीं है। वह जो कुछ करते हैं, हमारा रुख देखकर करते हैं। इस वजह से उन्हें कभी असफलता नहीं होती। हाँ, उनमें यह विशेष गुण है कि वह हमारे प्रस्तावों का रूपांतर करके अपना काम बना लेते हैं और उन्हें जनता के सामने ऐसी चतुरता से उपस्थित करते हैं कि लोगों की दृष्टि में उनका सम्मान बढ़ जाता है। हिंदुस्तानी रईसों और राजनीतिज्ञों में आत्मविश्वास का बड़ा अभाव होता है। वे हमारी सहायता से वह कर सकते हैं, जो हम नहीं कर सकते; पर हमारी सहायता के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। मोटर सिगरा आ पहुँची।
सोफ़िया उतर पड़ी। क्लार्क ने उसे प्रेम की दृष्टि से देखा, हाथ मिलाया और चले गए। छब्बीस अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बालक के नन्हे-से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण-किरणों में नहाकर माता का स्नेह-सुंदर गात निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल-निकालकर माता के स्नेह-प्लावित मुख की ओर देखता है, हुमुकता है और मुस्कराता है; पर माता बार-बार उसे अंचल से ढँक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाए। सहसा तोप के छूटने की कर्ण-कटु धवनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठा, बालक गोद में चिमट गया। फिर वही भयंकर धवनि! माँ दहल उठी, बालक चिमट गया। फिर तो लगातार तोपें छूटने लगीं। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गए। आज रियासत के नए पोलिटिकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं।
मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आए एक महीन गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातों, दावतों, नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार-बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहती; पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेड़ूँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गया, तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा-इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगा, और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगता, जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी। क्लार्क भी सहमत हो गए। एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैं, बड़ी धूमधाम से उनका स्वागत होता है, सलामियाँ उतारी जाती हैं, मान-पत्र मिलते हैं, मुख्य-मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओं, चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है।
वह बड़े धयान से कैदियों को, उनके भोजनालयों को, जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने धयान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थी, मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता था, जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। पर सोफिया के अविरल प्रयत्न से उनकी दशा सुधरने लगी है। आज जसवंतनगर के मेजबानों को सेवा-सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बा, अर्थात् वहाँ के राजकर्मचारी, पगड़ियाँ बाँधो इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश-हवास ठिकाने नहीं हैं, जैसे नींद में किसी ने भेड़ियों का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसज्जित कराए हैं, जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया है, बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिए हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तार दिया है।

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